गजलें और शायरी >> मेरा सफर मेरा सफरअली सरदार जाफरी
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प्रस्तुत है उर्दू कविताओं का संग्रह...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
शायरी का यह मैदान इतना विस्तृत है कि अगर इसमें एक तरफ़ ललित लेखन की
क्षमता है, जिस तरह चित्र कला में छोटे-छोटे सूक्ष्म लघुचित्रों की; तो
दूसरी तरफ़ बड़े-बड़े कैनवास पर मोटी-मोटी रेखाओं और चमकीलें रंगों के
सम्मिश्रण से बनाये गये चित्रों की भी है। मैक्सिको की जनता के
क्रान्तिकारी संघर्ष का एक परिणाम यह भी हुआ कि वहाँ चित्रकारों ने भवनों
की दीवारों पर बड़े-बड़े और जनता के क्रान्तिकारी स्वभाव के अनुकूल बहुत
ज़ोरदार और जोशीले भित्ति-चित्र बनाने की कला आविष्कार की और अब इसे
विश्वव्यापी सर्वप्रियता प्राप्त है। सरदार जाफ़री की बड़ी कविताओं में
ऐसी ही बड़ी-दीवारी चित्रकारी का आनन्द है। उनके शब्द स्पष्ट और शक्तिशाली
हैं, उनकी लय ऊँची और जोश से भरी हुई है; निश्चित रूप से उनकी शैली
उपदेशकों जैसी है, इसलिए कि वे जनसमूह में सुनाने के लिए भी कही गयी हैं।
और यह उनका गुण है, अवगुण नहीं। क्या मौलाना रूम की मसनवी का, मीर अनीस के
मरसियों का, इक़बाल के शिकवे का, शेक्सपियर ने नाटकों का अन्दाज़ उपदेशकों
जैसा नहीं है ? ये सब रचनाएँ जनसमूह को सुनाने के लिए कही गयी थीं; जाफ़री
की लम्बी कविताएँ इसी विधा की हैं, इनमें सरलता, प्रवाह और सत्यता है और
वे सुननेवालों पर सीधा प्रभाव डालती हैं और कामयाब हैं।
सज्जाद ज़हीर
अली सरदार जाफ़री की शाइरी
एक संकल्प और संघर्ष के युग की पहचान
सृजन के रहस्यमय पहलुओं के बारे में न जाने कितनी बातें कहीं जाती हैं।
अपनी-अपनी अटकल सब ही कुछ-न-कुछ अन्दाज़े लगा कर किसी हद तक इसके गूढ़
रहस्यों तक पहुँच भी जाते हैं। मगर एक अज़ीबों-ग़रीब पहलू यह है कि
कला-विशेष रूप से काव्य और साहित्य में ऐसे संबंधों को उत्कर्ष प्रदान
किया जाता है जिसका अन्दाज़ा उन लोगों को भी अकसर बहुत देर में और ख़ामोश
तौर पर होता है जो स्वयं इन संबंधों से परस्पर गुँथे हुए होते हैं। यहाँ
यह बात महत्त्वपूर्ण नहीं रह जाती कि शाइर और उसके पढ़ने वाले में फ़ासिला
कितना है ? देश-काल के सिवा न जाने कितने फ़ासिले हो सकते हैं जो दुनिया
के बनाये हुए प्रतिमानों से मापे भी जा सकते हैं। मगर ये फ़ासिले कुछ
अनजाने तौर पर ग़ायब होकर अवास्तविक भी हो जाते हैं।
‘ग़ालिब’
व ‘मीर’ और दूसरी भाषाओं के सभी बड़े कवियों से हमारे
कुछ ऐसे
ही अटूट संबंध हैं कि हम उनके अस्तित्व से स्वयं को और अपने अस्तित्व से
उनको निकाल नहीं सकते। हम उनके साथ-साथ जीवित रहते हैं और विकसित होते
रहते हैं और हर आने वाली पीढ़ी स्वयं ही उनकी नित्यता का कारण और प्रमाण
बन जाती है।
इन्हीं कलाकारों में ऐसे भी होते हैं जिनके साथ बाहरी फ़ासिले ख़ुशक़िस्मती से कुछ कम होते हैं। किसी रचनाकार के युग में रहनेवाले पाठकों- जो रचनाकार को सुनते हैं, देखते हैं, उसे कभी पसन्द और नापसन्द करते हैं- के संबंधों की एक और दिशा भी होती है। शाइर उसके श्रोता या पाठक एक-दूसरे पर अपना अधिकार भी समझते हैं और इस अधिकार का जताना महज़ एक भावुकतापूर्ण रवैया नहीं होता। रचनाकार के सृजन और पाठक के साहित्यिक व्यवहार पर भी इसका प्रभाव पड़ता है। यह अधिकार अपने भीतर अनगिनत अपेक्षाएँ लिये हुए होता है। जिसका आधार वह साहित्यिक अभिरुचि है जिसके निर्माण में परम्पराओं, युगीन व्यवहार-पद्धतियों, चेतना के विविध रूपों, दृष्टिकोणों, सांस्कृतिक मूल्यों, भाषायी विरासत, व्यक्ति के स्वभाव और प्रवृत्तियों-अभिप्राय यह है कि सभी का योग होता है।
सरदार ज़ाफ़री के युग में मुझ-सा व्यक्ति जब उनके बारे में इन अनुभूतियों के साथ लिखने बैठता है तो चेतन और अवचेतन दोनों स्तरों पर अन्दर-अन्दर एक संबंध सक्रिय रहता है। यहाँ सम्बद्धता व तटस्थता और निर्वेयक्तिक अध्ययन जैसे किताबी नुस्ख़े अप्रासंगिक हो जाते हैं। यों तो हर शाइर के बारे में विभिन्न और अन्तर्विरोधी रायें होती हैं। मगर सरदार जाफ़री के बारे में परस्पर विरोधी रायें इसलिए लाज़िम हैं कि उनका सर्जनात्मक व्यक्तित्व वैचारिक स्तर पर साम्यवादी आन्दोलन से सम्बद्ध है और इस आन्दोलन से एकमेक हो गया है। इस सम्बद्धता ने उनकी शाइरी और व्यक्तित्व को अगर विवादग्रस्त बना दिया है तो कोई हैरत की बात नहीं। अगर ऐसा न होता तो हैरत की बात होती।
सरदार जाफ़री अब एक युग के प्रतीक बन चुके हैं- एक उत्साहवर्द्धक, कोलाहलपूर्ण और साहसिक युग। जब चन्द आदर्शों के सहारे हम सब जीवित थे और एक शानदार भविष्य के स्वप्न भी देख रहे थे, मैं सातवीं-आठवीं कक्षा का विद्यार्थी था, जब न सिर्फ़ मैं बल्कि मेरी उम्र के बहुत से विद्यार्थियों ने सरदार जाफ़री को पहली बार पढ़ा था। आज यह बहुत दूर की बात लगती है। मगर हमने अपने होश में जो हिन्दुस्तान देखा, उसने हमें उसी ज़मीन से बहुत उठा दिया था जिसमें रहते हुए आज हम हताश हैं। आज़ादी के संघर्ष के दौरान जिन आदर्शों ने जन्म लिया और जिनके साथ आने वाली पीढ़ियाँ आगे बढ़ी, वे हमारे समूचे जीवन की धुरी थे। अतएव उस युग के साहित्य में इन आदर्शों से प्रेरित भावों का स्पष्ट रूप से केन्द्रीय स्थिति रही है।
हमारे देश के कोने-कोने में उन दिनों यह उत्साह और उमंग मिलती थी। जामिया मिल्लिया इस्लामिया के वातावरण में, जहाँ मैं विद्यार्थी था, इसी स्थापना के ज़माने से विद्रोह भड़क रहा था। मैं 1941 ई. में लगभग सात साल की उम्र में जब यहाँ दाख़िल हुआ तो यहाँ सबक़ ही देश-प्रेम और साम्राज्यविरोध का मिला। हर रोज सुबह-सुबह स्कूल में क्लास जाने से पहले सभी विद्यार्थियों की सभा में हमारी शिक्षा का आरम्भ इक़बाल की नज़्मों और आज़ादी से संबंधित दूसरे शाइरों की ओजपूर्ण रचनाओं से होता। ‘जोश’, ‘मज़ाज़’, ‘मख़्दूम’ और उस समय के बहुत से शाइरों के तराने हमने यहीं पहली बार सुने जिनका संगीत आज तक हमारी स्मृतियों में गूँज रहा है। उस सुबह की सभा में-जिसे हम सब ‘तराना’ कहते थे- गाँधी, नेहरू, आज़ाद के भाषणों के अंश सुनाये जाते थे। गाँधी जी के उपवास और सत्याग्रह, नेताओं के कारावास की खबरें, हुक्मरानों की गोलाबारी, लाठी-चार्ज और आज़ादी से सूरमाओं की दिलेरी के क़िस्से सुनाये जाते थे। ख़ुद ज़ामिया के महत्त्वपूर्ण सदस्य आज़ादी की लड़ाई में पूरे तौर पर शामिल थे और विद्यार्थियों के सामने अपने विचारों को निस्संकोच रूप से व्यक्त करते थे। मेरे पिता इस समूचे परिदृश्य में शामिल थे। लिहाज़ा स्कूल से घर तक एक ही सिलसिला था।
जामिया की डिग्रियाँ कहीं मान्य नहीं थीं। ज़ामिया में शिक्षा प्राप्त लोग सरकारी नौकरी के पात्र नहीं समझे जाते थे। अतएव सिखाया यही जाता था कि सरकारी नौकरी से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण आत्मस्वाभिमान और स्वाधीनता प्राप्ति है। इस वातावरण में आँख खुली तो हम यही सब-कुछ अपने इर्द-गिर्द देखना भी चाहते थे। यह सबक़ हमारी रग-रग में ऐसे समा गया कि हमारे लिए विद्रोह और प्रतिरोध के नारे एक जादुई कैफ़ियत रखते थे। जामिया से इक़बाल, प्रेमचन्द और उस युग के बड़े व्यक्तित्वों का संबंध तो पहले ही था, उनके बाद प्रगतिशीलों में सरदार जाफ़री, कृश्न चन्दर और राजेन्दर सिंह बेदी भी जामिया की उर्दू पाठ्यक्रम में शामिल हो गये थे। इन लोगों को हमने सिर्फ़ पढ़ा ही नहीं, आये दिन ज़ामिया की महफ़िलों में आते-जाते और अपनी रचनाएँ सुनाते और बहस करते देखा और सुना।
‘ख़ून की लकीर’ प्रकाशित हुई तो मैंने इस पर समीक्षा लिखी और जामिया के प्रगतिशील लेखक संघ के जलसे में पेश किया। ज़ामिया में बुज़ुर्गों के सामने अपने विचारों की बेबाक अभिव्यक्ति पर पाबन्दी नहीं थी। बल्कि उस्ताद मत-भिन्नता के बावजूद उत्साहवर्द्धन करते थे। ज़ाहिर है इस उम्र में मेरा यह लेख बचकाना ही था कि वे सरकारी कर्मचारी थे और इसे हम शाइर-ए-इन्क़िलाब की गरिमा के विरुद्ध समझते थे। फिर बहुत दिन बाद हिन्दुस्तान और पाकिस्तान की जंग के बाद जब सरदार जाफ़री की किताब ‘पैराहन-ए-शरर’ सामने आयी तो मैंने उनकी देशभक्ति को राजनीतिक विचलन की संज्ञा देकर सरदार जाफ़री की सारी शाइरी को ही तहस-नहस कर दिया। राजनीतिक दृष्टि से आज भी मेरी राय में तब्दीली नहीं हुई लेकिन ‘पैराइन-ए-शरर’ के साथ उस समय यह पूरा न्याय नहीं था। प्रगतिशीलता के कारण और फिर खुद सरदार जाफ़री ने विषय-वस्तु एवं रूप की बहस में विषय-वस्तु को अलग करके महत्त्व को लेकर इस तरह आग्रह किया था कि हम जैसे अनाड़ी ऐसी धृष्टताएँ कर लिया करते थे जिसकी आज हिम्मत नहीं होती। मगर यह भी हमारे शाइर पर हमारा अधिकार था।
नौजवानों के दिल की धड़कने हों, शाइर की आवाज़ हों, रहनुमाओं के भाषण हों, आम बहसें और चर्चाएँ हों, जलसों और जुलूसों के शोर हों- सब-कुछ गोलियों की सनसनाहट, नक्कारों की गूँज और नारों के उछाल से एकमेक था। इसमें सन्देह नहीं कि हर युग में अनगिनत आवाज़ें वातावरण में विद्यमान रहती हैं लेकिन स्पष्ट आवाज़ वही होती है जिसमें हर स्तर पर लोगों के भावों की उष्मा भी समाहित हो। निश्चय ही इतिहास में ऐसे दौर भी आते हैं जब कानाफ़ूसी करना, संकेतों में बातें करना भी आवश्यक हो जाता है। ये सब चीज़े मिलकर ऐसे लहजों और स्वरों को उभार कर सामने लाती हैं जो समय के आग्रहों के अनुरूप होते हैं। खामोशी भी बोलती हुई और गूँजती हुई कोई-न-कोई सन्देश दूर तक पहँचाती हैं। साहित्य ऐसे लहजों और स्वरों से आकार लेता है जो किसी समय के सामान्य वातावरण में उपजते हैं। उर्दू साहित्य के विभिन्न युगों का सृजन इन स्वरों का प्रतिनिधित्व करता है। शहर आशोब1 और हज्व2 से लेकर ग़ज़ल तक हर युग में इस वास्तविकता को बयान करती रही हैं। मगर उस ज़माने में आवाज़ें और ही थीं।
साहित्य को देखने के कई कोण हो सकते हैं। इसमें रूचि रखनेवाले अलग-अलग ढंग से आनन्दित होते हैं और आनन्दित होने का कारण बता सकते हैं।
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1. उर्दू नज़्म की एक किस्म, जिसमें अपने समय के जनजीवन की दुरवस्था और शासन की क्रूरताओं का चित्रण किया जाता है।
2. निन्दापरक कविता जिसमें हास्य-व्यंग्य का पुट होता है।
आलोचना के मानदण्डों पर परख कर इन विचारों को चाहे जिस खाने में रखें लेकिन साहित्य से आनन्दित होनेवालों की अनुभूति का बहरहाल बुनियादी महत्त्व होता है। शाइर और उसके पढ़ने और सुनने वाले चाहे कितने भी समीप या दूर हों; अगर समकालीन हैं तो उनके अनुभव और चेतना एक स्वाभाविक बात है। दोनों एक ही युग, एक ही संस्कृति से संबंध रखते हुए भी अभिरूचि, स्वभाव, परिवेश, ज्ञान एवं बोध की दृष्टि से अलग-अलग धरातलों पर होते हैं; इनके बीच कई धरातलों पर जुड़ाव भी हो सकता है। अतएव सरदार जाफ़री से मेरा और इस सदी की तीसरी चौथी दहाई में होश सँभालने वाले बहुत-से लोगों का संबंध उनकी शाइरी के माध्यम से इसी वातावरण में जुड़ा जिसने हमें समान आदर्श, समान सपनों और समान अकांक्षाओं के एक सूत्र में बाँध दिया।
उर्दू-कल्चर में पले-बढ़े वे सब लोग जिनमें शाइरी और साहित्य का संस्कार है, होश सँभालते ही अपने माहौल में क्लासिकी उस्तादों की आवाज़ की अनुगूँज पर मुग्ध हो जाते हैं। बल्कि यह कहना भी ग़लत न होगा कि होश सँभालने से पहले बुज़ुर्गों की तरफ़ से इसकी कोशिश होती है कि बच्चे का शीन-क़ाफ़1 दुरुस्त हो, शब्द, मुहावरे, और प्रतीकों के प्रयोग और पहचान का विवेक धीरे-धीरे जाग्रत हो। सभा के शिष्टाचार और सम्भाषण-कला सीखने के लिए महफ़िलों में बिठाया जाना, तुतलाने की उम्र से उर्दू और फ़ारसी के अच्छे शे’र याद कराना, बेतबाज़ी2 वग़ैरह के जरिए काव्य-रचना की परम्पराओं-जैसे बह्र3, वज़्न, रदीफ़-क़ाफ़िया और तल्मीहात4- से परिचित कराना, वह सब उस समाज का अनिवार्य अंग था। सर्जनात्मक रुझान रखनेवाले उस माहौल से पूरा लाभ उठाते थे और उन्हें बहुत कम उम्र में शे’र कहने का चस्का लग जाता था।
सरदार जाफरी इसी महौल में पले-पढ़े। अतएव काव्याभिरुचि की शिक्षा और काव्य-रचनना की परम्पराओं से एक स्वभाविक वातावरण में परिचय ने उनके सर्जनात्मक स्वभाव को समृद्ध किया। स्कूल जाने से पहले ही शे’र कहने की अभिरुचि विकसित हो गयी और फिर कॉलेज व यूनिवर्सिटी की शिक्षा के दौरान अंग्रेजी भाषा एवं साहित्य और अन्य अनुशासनों के अध्ययन ने सोच को नयी दिशा की ओर उन्मुख किया। लखनऊ, दिल्ली और अलीगढ़ के वातावरण में राजनीतिक आन्दोलन में दिलचस्पी ने शाइर के व्यक्तित्व में एक उत्साही राजनीतिक कार्यकर्ता को जगा दिया जिसने अपने युग की व्यवस्था के प्रति अस्वीकार और प्रतिरोध के साथ-साथ एक सन्तुलित जीवन-दृष्टि को उनके सृजन की धुरी बना दिया।
सरदार जाफ़री उर्दू की समूची परम्परा को आत्मसात् करते हुए भी ‘अनीस’, ‘इक़बाल’ और ‘जोश’ तौर पर प्रभावित होनेवाला मिज़ाज़ लेकर आये थे।
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1.उच्चारण, 2. अन्त्याक्षरी, 3.छन्द, 4. अन्त:कथाएँ, इतिहास संबंधी संकेत।
समय की गति, उनकी वैचारिक उपज और व्यावहारिक सक्रियताओं ने इसे और समृद्ध किया। इन शाइरों से उनकी स्वाभाविक संगति का कारण यह था कि इन लोगों ने जिस आदर्श जीवन का स्वप्न देखा था, उसे सिर्फ अपनी आँखों को रौशन रखने के बजाय दूसरों को इसमें शरीक करने के लिए शाइरी को एक माध्यम बनाया था। ‘अनीस’, ‘इक़बाल’ और ‘जोश’ के सपने अलग-अलग ज़रूर थे मगर उन्हें अपनी-अपनी कल्पना की दुनिया पर इतना विश्वास था कि वे अपनी इस अभिलाषा को ‘स्व’ की परिधि में सीमित नहीं रख सकते थे।
उनकी शाइरी सन्देश और लोक-जागरण की शाइरी थी। सरदार जाफ़री जैसा शाइर जो संकेतों में बात करने वाला शाइर नहीं था, वह इन शाइरों से विशेष जुड़ाव क़ायम किये बगैर कैसे रह सकता था ? अपने अन्दर ही अन्दर घुलने और दिल ही दिल में पछताने के बजाय भावों की उदात्तता अभिव्यक्ति की सहजता और जन सामान्य को उद्बुद्ध करने वाली लय- जो कि उस युग की माँग थी- सरदार जाफ़री को रास आयी। हमें याद हैं कि हज़ारों के मज़मे में सरदार जाफ़री की आवाज़ एक स्फूर्ति और उमंग पैदा कर देती थी। मुशायरों में उनकी आज़ाद नज़्में भी अजीब जादू करती थीं। जिस माहौल में ग़ज़ल की गेयता और सांकेतिकता ‘जिगर’ जैसे स्वरसाधक के संगीत में ढाल कर हर तरफ़ छा जाती थी, उसमें सरदार जाफ़री का ऊँचा स्वर और बिना गाये रचना-पाठ करने का ढंग न सिर्फ़ लोकप्रिय हो गया बल्कि आज़ाद और रदीफ़-क़ाफ़िया रहित नज़्म को अगर स्वीकार कर लिया तो इसमें सरदार जाफ़री और कैफ़ी आज़मी जैसे शाइरों का बड़ा हाथ था।
इन्हीं कलाकारों में ऐसे भी होते हैं जिनके साथ बाहरी फ़ासिले ख़ुशक़िस्मती से कुछ कम होते हैं। किसी रचनाकार के युग में रहनेवाले पाठकों- जो रचनाकार को सुनते हैं, देखते हैं, उसे कभी पसन्द और नापसन्द करते हैं- के संबंधों की एक और दिशा भी होती है। शाइर उसके श्रोता या पाठक एक-दूसरे पर अपना अधिकार भी समझते हैं और इस अधिकार का जताना महज़ एक भावुकतापूर्ण रवैया नहीं होता। रचनाकार के सृजन और पाठक के साहित्यिक व्यवहार पर भी इसका प्रभाव पड़ता है। यह अधिकार अपने भीतर अनगिनत अपेक्षाएँ लिये हुए होता है। जिसका आधार वह साहित्यिक अभिरुचि है जिसके निर्माण में परम्पराओं, युगीन व्यवहार-पद्धतियों, चेतना के विविध रूपों, दृष्टिकोणों, सांस्कृतिक मूल्यों, भाषायी विरासत, व्यक्ति के स्वभाव और प्रवृत्तियों-अभिप्राय यह है कि सभी का योग होता है।
सरदार ज़ाफ़री के युग में मुझ-सा व्यक्ति जब उनके बारे में इन अनुभूतियों के साथ लिखने बैठता है तो चेतन और अवचेतन दोनों स्तरों पर अन्दर-अन्दर एक संबंध सक्रिय रहता है। यहाँ सम्बद्धता व तटस्थता और निर्वेयक्तिक अध्ययन जैसे किताबी नुस्ख़े अप्रासंगिक हो जाते हैं। यों तो हर शाइर के बारे में विभिन्न और अन्तर्विरोधी रायें होती हैं। मगर सरदार जाफ़री के बारे में परस्पर विरोधी रायें इसलिए लाज़िम हैं कि उनका सर्जनात्मक व्यक्तित्व वैचारिक स्तर पर साम्यवादी आन्दोलन से सम्बद्ध है और इस आन्दोलन से एकमेक हो गया है। इस सम्बद्धता ने उनकी शाइरी और व्यक्तित्व को अगर विवादग्रस्त बना दिया है तो कोई हैरत की बात नहीं। अगर ऐसा न होता तो हैरत की बात होती।
सरदार जाफ़री अब एक युग के प्रतीक बन चुके हैं- एक उत्साहवर्द्धक, कोलाहलपूर्ण और साहसिक युग। जब चन्द आदर्शों के सहारे हम सब जीवित थे और एक शानदार भविष्य के स्वप्न भी देख रहे थे, मैं सातवीं-आठवीं कक्षा का विद्यार्थी था, जब न सिर्फ़ मैं बल्कि मेरी उम्र के बहुत से विद्यार्थियों ने सरदार जाफ़री को पहली बार पढ़ा था। आज यह बहुत दूर की बात लगती है। मगर हमने अपने होश में जो हिन्दुस्तान देखा, उसने हमें उसी ज़मीन से बहुत उठा दिया था जिसमें रहते हुए आज हम हताश हैं। आज़ादी के संघर्ष के दौरान जिन आदर्शों ने जन्म लिया और जिनके साथ आने वाली पीढ़ियाँ आगे बढ़ी, वे हमारे समूचे जीवन की धुरी थे। अतएव उस युग के साहित्य में इन आदर्शों से प्रेरित भावों का स्पष्ट रूप से केन्द्रीय स्थिति रही है।
हमारे देश के कोने-कोने में उन दिनों यह उत्साह और उमंग मिलती थी। जामिया मिल्लिया इस्लामिया के वातावरण में, जहाँ मैं विद्यार्थी था, इसी स्थापना के ज़माने से विद्रोह भड़क रहा था। मैं 1941 ई. में लगभग सात साल की उम्र में जब यहाँ दाख़िल हुआ तो यहाँ सबक़ ही देश-प्रेम और साम्राज्यविरोध का मिला। हर रोज सुबह-सुबह स्कूल में क्लास जाने से पहले सभी विद्यार्थियों की सभा में हमारी शिक्षा का आरम्भ इक़बाल की नज़्मों और आज़ादी से संबंधित दूसरे शाइरों की ओजपूर्ण रचनाओं से होता। ‘जोश’, ‘मज़ाज़’, ‘मख़्दूम’ और उस समय के बहुत से शाइरों के तराने हमने यहीं पहली बार सुने जिनका संगीत आज तक हमारी स्मृतियों में गूँज रहा है। उस सुबह की सभा में-जिसे हम सब ‘तराना’ कहते थे- गाँधी, नेहरू, आज़ाद के भाषणों के अंश सुनाये जाते थे। गाँधी जी के उपवास और सत्याग्रह, नेताओं के कारावास की खबरें, हुक्मरानों की गोलाबारी, लाठी-चार्ज और आज़ादी से सूरमाओं की दिलेरी के क़िस्से सुनाये जाते थे। ख़ुद ज़ामिया के महत्त्वपूर्ण सदस्य आज़ादी की लड़ाई में पूरे तौर पर शामिल थे और विद्यार्थियों के सामने अपने विचारों को निस्संकोच रूप से व्यक्त करते थे। मेरे पिता इस समूचे परिदृश्य में शामिल थे। लिहाज़ा स्कूल से घर तक एक ही सिलसिला था।
जामिया की डिग्रियाँ कहीं मान्य नहीं थीं। ज़ामिया में शिक्षा प्राप्त लोग सरकारी नौकरी के पात्र नहीं समझे जाते थे। अतएव सिखाया यही जाता था कि सरकारी नौकरी से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण आत्मस्वाभिमान और स्वाधीनता प्राप्ति है। इस वातावरण में आँख खुली तो हम यही सब-कुछ अपने इर्द-गिर्द देखना भी चाहते थे। यह सबक़ हमारी रग-रग में ऐसे समा गया कि हमारे लिए विद्रोह और प्रतिरोध के नारे एक जादुई कैफ़ियत रखते थे। जामिया से इक़बाल, प्रेमचन्द और उस युग के बड़े व्यक्तित्वों का संबंध तो पहले ही था, उनके बाद प्रगतिशीलों में सरदार जाफ़री, कृश्न चन्दर और राजेन्दर सिंह बेदी भी जामिया की उर्दू पाठ्यक्रम में शामिल हो गये थे। इन लोगों को हमने सिर्फ़ पढ़ा ही नहीं, आये दिन ज़ामिया की महफ़िलों में आते-जाते और अपनी रचनाएँ सुनाते और बहस करते देखा और सुना।
‘ख़ून की लकीर’ प्रकाशित हुई तो मैंने इस पर समीक्षा लिखी और जामिया के प्रगतिशील लेखक संघ के जलसे में पेश किया। ज़ामिया में बुज़ुर्गों के सामने अपने विचारों की बेबाक अभिव्यक्ति पर पाबन्दी नहीं थी। बल्कि उस्ताद मत-भिन्नता के बावजूद उत्साहवर्द्धन करते थे। ज़ाहिर है इस उम्र में मेरा यह लेख बचकाना ही था कि वे सरकारी कर्मचारी थे और इसे हम शाइर-ए-इन्क़िलाब की गरिमा के विरुद्ध समझते थे। फिर बहुत दिन बाद हिन्दुस्तान और पाकिस्तान की जंग के बाद जब सरदार जाफ़री की किताब ‘पैराहन-ए-शरर’ सामने आयी तो मैंने उनकी देशभक्ति को राजनीतिक विचलन की संज्ञा देकर सरदार जाफ़री की सारी शाइरी को ही तहस-नहस कर दिया। राजनीतिक दृष्टि से आज भी मेरी राय में तब्दीली नहीं हुई लेकिन ‘पैराइन-ए-शरर’ के साथ उस समय यह पूरा न्याय नहीं था। प्रगतिशीलता के कारण और फिर खुद सरदार जाफ़री ने विषय-वस्तु एवं रूप की बहस में विषय-वस्तु को अलग करके महत्त्व को लेकर इस तरह आग्रह किया था कि हम जैसे अनाड़ी ऐसी धृष्टताएँ कर लिया करते थे जिसकी आज हिम्मत नहीं होती। मगर यह भी हमारे शाइर पर हमारा अधिकार था।
नौजवानों के दिल की धड़कने हों, शाइर की आवाज़ हों, रहनुमाओं के भाषण हों, आम बहसें और चर्चाएँ हों, जलसों और जुलूसों के शोर हों- सब-कुछ गोलियों की सनसनाहट, नक्कारों की गूँज और नारों के उछाल से एकमेक था। इसमें सन्देह नहीं कि हर युग में अनगिनत आवाज़ें वातावरण में विद्यमान रहती हैं लेकिन स्पष्ट आवाज़ वही होती है जिसमें हर स्तर पर लोगों के भावों की उष्मा भी समाहित हो। निश्चय ही इतिहास में ऐसे दौर भी आते हैं जब कानाफ़ूसी करना, संकेतों में बातें करना भी आवश्यक हो जाता है। ये सब चीज़े मिलकर ऐसे लहजों और स्वरों को उभार कर सामने लाती हैं जो समय के आग्रहों के अनुरूप होते हैं। खामोशी भी बोलती हुई और गूँजती हुई कोई-न-कोई सन्देश दूर तक पहँचाती हैं। साहित्य ऐसे लहजों और स्वरों से आकार लेता है जो किसी समय के सामान्य वातावरण में उपजते हैं। उर्दू साहित्य के विभिन्न युगों का सृजन इन स्वरों का प्रतिनिधित्व करता है। शहर आशोब1 और हज्व2 से लेकर ग़ज़ल तक हर युग में इस वास्तविकता को बयान करती रही हैं। मगर उस ज़माने में आवाज़ें और ही थीं।
साहित्य को देखने के कई कोण हो सकते हैं। इसमें रूचि रखनेवाले अलग-अलग ढंग से आनन्दित होते हैं और आनन्दित होने का कारण बता सकते हैं।
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1. उर्दू नज़्म की एक किस्म, जिसमें अपने समय के जनजीवन की दुरवस्था और शासन की क्रूरताओं का चित्रण किया जाता है।
2. निन्दापरक कविता जिसमें हास्य-व्यंग्य का पुट होता है।
आलोचना के मानदण्डों पर परख कर इन विचारों को चाहे जिस खाने में रखें लेकिन साहित्य से आनन्दित होनेवालों की अनुभूति का बहरहाल बुनियादी महत्त्व होता है। शाइर और उसके पढ़ने और सुनने वाले चाहे कितने भी समीप या दूर हों; अगर समकालीन हैं तो उनके अनुभव और चेतना एक स्वाभाविक बात है। दोनों एक ही युग, एक ही संस्कृति से संबंध रखते हुए भी अभिरूचि, स्वभाव, परिवेश, ज्ञान एवं बोध की दृष्टि से अलग-अलग धरातलों पर होते हैं; इनके बीच कई धरातलों पर जुड़ाव भी हो सकता है। अतएव सरदार जाफ़री से मेरा और इस सदी की तीसरी चौथी दहाई में होश सँभालने वाले बहुत-से लोगों का संबंध उनकी शाइरी के माध्यम से इसी वातावरण में जुड़ा जिसने हमें समान आदर्श, समान सपनों और समान अकांक्षाओं के एक सूत्र में बाँध दिया।
उर्दू-कल्चर में पले-बढ़े वे सब लोग जिनमें शाइरी और साहित्य का संस्कार है, होश सँभालते ही अपने माहौल में क्लासिकी उस्तादों की आवाज़ की अनुगूँज पर मुग्ध हो जाते हैं। बल्कि यह कहना भी ग़लत न होगा कि होश सँभालने से पहले बुज़ुर्गों की तरफ़ से इसकी कोशिश होती है कि बच्चे का शीन-क़ाफ़1 दुरुस्त हो, शब्द, मुहावरे, और प्रतीकों के प्रयोग और पहचान का विवेक धीरे-धीरे जाग्रत हो। सभा के शिष्टाचार और सम्भाषण-कला सीखने के लिए महफ़िलों में बिठाया जाना, तुतलाने की उम्र से उर्दू और फ़ारसी के अच्छे शे’र याद कराना, बेतबाज़ी2 वग़ैरह के जरिए काव्य-रचना की परम्पराओं-जैसे बह्र3, वज़्न, रदीफ़-क़ाफ़िया और तल्मीहात4- से परिचित कराना, वह सब उस समाज का अनिवार्य अंग था। सर्जनात्मक रुझान रखनेवाले उस माहौल से पूरा लाभ उठाते थे और उन्हें बहुत कम उम्र में शे’र कहने का चस्का लग जाता था।
सरदार जाफरी इसी महौल में पले-पढ़े। अतएव काव्याभिरुचि की शिक्षा और काव्य-रचनना की परम्पराओं से एक स्वभाविक वातावरण में परिचय ने उनके सर्जनात्मक स्वभाव को समृद्ध किया। स्कूल जाने से पहले ही शे’र कहने की अभिरुचि विकसित हो गयी और फिर कॉलेज व यूनिवर्सिटी की शिक्षा के दौरान अंग्रेजी भाषा एवं साहित्य और अन्य अनुशासनों के अध्ययन ने सोच को नयी दिशा की ओर उन्मुख किया। लखनऊ, दिल्ली और अलीगढ़ के वातावरण में राजनीतिक आन्दोलन में दिलचस्पी ने शाइर के व्यक्तित्व में एक उत्साही राजनीतिक कार्यकर्ता को जगा दिया जिसने अपने युग की व्यवस्था के प्रति अस्वीकार और प्रतिरोध के साथ-साथ एक सन्तुलित जीवन-दृष्टि को उनके सृजन की धुरी बना दिया।
सरदार जाफ़री उर्दू की समूची परम्परा को आत्मसात् करते हुए भी ‘अनीस’, ‘इक़बाल’ और ‘जोश’ तौर पर प्रभावित होनेवाला मिज़ाज़ लेकर आये थे।
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1.उच्चारण, 2. अन्त्याक्षरी, 3.छन्द, 4. अन्त:कथाएँ, इतिहास संबंधी संकेत।
समय की गति, उनकी वैचारिक उपज और व्यावहारिक सक्रियताओं ने इसे और समृद्ध किया। इन शाइरों से उनकी स्वाभाविक संगति का कारण यह था कि इन लोगों ने जिस आदर्श जीवन का स्वप्न देखा था, उसे सिर्फ अपनी आँखों को रौशन रखने के बजाय दूसरों को इसमें शरीक करने के लिए शाइरी को एक माध्यम बनाया था। ‘अनीस’, ‘इक़बाल’ और ‘जोश’ के सपने अलग-अलग ज़रूर थे मगर उन्हें अपनी-अपनी कल्पना की दुनिया पर इतना विश्वास था कि वे अपनी इस अभिलाषा को ‘स्व’ की परिधि में सीमित नहीं रख सकते थे।
उनकी शाइरी सन्देश और लोक-जागरण की शाइरी थी। सरदार जाफ़री जैसा शाइर जो संकेतों में बात करने वाला शाइर नहीं था, वह इन शाइरों से विशेष जुड़ाव क़ायम किये बगैर कैसे रह सकता था ? अपने अन्दर ही अन्दर घुलने और दिल ही दिल में पछताने के बजाय भावों की उदात्तता अभिव्यक्ति की सहजता और जन सामान्य को उद्बुद्ध करने वाली लय- जो कि उस युग की माँग थी- सरदार जाफ़री को रास आयी। हमें याद हैं कि हज़ारों के मज़मे में सरदार जाफ़री की आवाज़ एक स्फूर्ति और उमंग पैदा कर देती थी। मुशायरों में उनकी आज़ाद नज़्में भी अजीब जादू करती थीं। जिस माहौल में ग़ज़ल की गेयता और सांकेतिकता ‘जिगर’ जैसे स्वरसाधक के संगीत में ढाल कर हर तरफ़ छा जाती थी, उसमें सरदार जाफ़री का ऊँचा स्वर और बिना गाये रचना-पाठ करने का ढंग न सिर्फ़ लोकप्रिय हो गया बल्कि आज़ाद और रदीफ़-क़ाफ़िया रहित नज़्म को अगर स्वीकार कर लिया तो इसमें सरदार जाफ़री और कैफ़ी आज़मी जैसे शाइरों का बड़ा हाथ था।
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